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उर्दू कहानियाँ

रजिया सज्जाद जहीर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :193
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 80
आईएसबीएन :00000000

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उर्दू कहानियाँ समकालीन उर्दू साहित्य की चौबीस प्रतिनिधि कहानियों का अनूठा संकलन है।

Urdu Kahaniyan - A Hindi Book by - Rajiya Sajjad Jahir उर्दू कहानियाँ - रजिया सज्जाद जहीर

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

उर्दू कहानियाँ समकालीन उर्दू साहित्य की चौबीस प्रतिनिधि कहानियों का अनूठा संकलन है। उर्दू कथा साहित्य आज उपलब्धि के उस शिखर पर पहुँच चुका है, जहाँ एक ओर यह अपने पाठकों के बीच लोकप्रिय है तो दूसरी ओर विश्वसाहित्य क्षितिज पर अन्य भाषाओं के कथा साहित्य से कदम मिला रहा है। ये कहानियाँ उर्दू कथा की इन उपलब्धियों की एक झाँकी प्रस्तुत करती हैं देश-प्रेम की नैतिकता की तारीफ, सांप्रदायिक दंगा और दंगाइयों के प्रति घृणाभाव, आम-जनजीवन की विकृतियों पर प्रतिक्रिया, उर्दूभाषी जनपद की सभ्यता, संस्कृति और लोकाचार आदि का वास्तविक चेहरा इन कहानियों में साफ-साफ उभर के आया है। ये कहानियाँ वस्तु के स्तर पर रचनाकारों के यथार्थ दर्शन तथा उसकी जीवन दृष्टि और शिल्प के स्तर पर उनके रचना कौशल का सबूत पेश करती हैं। मसलन ये कहानियाँ उर्दू के रचनाकारों के द्वारा प्रस्तुत देश दशा का जीवंत चित्रण हैं।
उर्दू के सम्मानित कथाकार रजिया सज्जाद जहीर (1918-1979) ने यह संकलन तैयार किया। सैकड़ों कहानियों के अतिरिक्त इनके कई उपन्यास तथा अनुवाद कार्य भी प्रकाशित हैं। प्रगितशील आंदोलन के काल में इन्होंने अपनी सक्रिय भूमिका निभाई।
इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद बहुभाषाविद् गुलवंत फारिग ने किया है। अनुवाद कला में इन्होंने अच्छी पहचान बनाई है। इनके कई अनुवाद कार्यो को पाठकों की काफी सराहना मिली है।

भूमिका

उर्दू में प्रेमचंद से पहले कहानी का कोई नियमित रूप प्राप्त नहीं। सरशार के उपन्यासों के टुकड़े जो धारावाहिक प्रकाशित हुआ करते थे, उनमें से कुछ अपने आप में भी संपूर्ण होते थे, परंतु फिर भी उनको कहानी का रूप नहीं कहा जा सकता। प्रेमचंद की कहानियां 1908 ई. से सामने आती हैं जिसका अर्थ यह है कि उर्दू कहानी की उम्र लगभग अठत्तर वर्ष है।
प्रेमचंद की शुरू की जो कहानियां मिलती हैं, उनसे वह एक रोमांटिक साहित्यकार नजर आते हैं, मगर धीरे-धीरे वह प्रगतिशील होते चले गए और ‘साहित्य जीवन के लिए’ का रुझान उनके यहां इस प्रकार बढ़ता गया कि उनकी कहानियों का एक संकलन ‘सोज़े-वतन’ अंग्रेज सरकार के हुक्म से खुले आम जलाया गया और उसकी सारी प्रतियां जब्त कर ली गईं।
1908 ई. से लेकर पहला विश्व-युद्ध समाप्त होने तक, कहानी लेखकों का एक काफी बड़ा वर्ग पैदा हो गया जिसको उर्दू वाले आमतौर पर रोमांटिक कहानीकार कहते हैं। उनके यहां वर्णन और भाषा की बड़ी खूबसूरती है, मगर साधाराणतया रंग ऐसा है जो काल्पनिक अधिक है और वास्तविक कम। उनमें प्रेमचंद (प्रारंभिक काल में), एम. असलम, पंडित सुदर्शन, सज्जाद हैदर यल्दरम, मजनू गोरखपुरी, ल. अहमद, हिजाब इस्माईल आदि के नाम विशेष हैं।

प्रेमचंद का नाम उन सब से बड़ा इसलिए है कि उनके यहां पहली बार उर्दू साहित्य में जनसाधारण का सही और सच्चा मित्र मिलता है। जनसाधारण से प्यार, श्रमिकों के लिए आदर-सम्मान और ‘साहित्य जीवन के लिए’ का विवेक उपलब्ध है। निश्चय ही कहा जा सकता है कि प्रेमचंद ने उर्दू गद्य को जनतिक साहित्य का विचार दिया और उसे यथार्थवादी बनाने और जीवन के निकट लाने की नींव डाली।
1932 ई. में लखनऊ में ‘अंगारे’ के नाम से कहानियों का एक संकलन प्रकाशित हुआ था। उसमें सज्जाद ज़हीर, डाक्टर मिस रशीद जहां, अहमद अली और महमूद-उल-ज़फ़र इत्यादि की कहानियां थीं। यह विवाद का विषय है कि साहित्यिक दृष्टि से ये कहानियां उत्कृष्ट थीं या नहीं, परंतु इस बात पर सब एकमत हैं कि ‘अंगारे’ में उर्दू कहानी ने एक ऐसी जबर्दस्त छलांग लगाई कि इसमें हर प्रकार के विषयों पर निर्भीक होकर विचार प्रगट करने के दरवाजे खुल गए। बेलाग लिखने का साहस और प्रवृत्ति, विशेषकर धर्म, भ्रमात्मक विश्वास, परंपरा आदि पर इस पुस्तक ने करारी चोट की। यौन जो एक वर्जित विषय था, उस पर भी कलम उठने लगे। इस लिहाज से यह पुस्तक जिसे अश्लील मानकर जब्त किया गया था, एक ऐतिहासिक महत्व रखती है।

1936 ई. में भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। प्रेमचंद ने लखनऊ में आयोजित इसके प्रथम सम्मेलन की अध्यक्षता की। सज्जाद ज़हीर इस संघ के सचिव और इसके संस्थापकों में से एक थे। इसे टैगोर, इक़बाल, नज़रुल इस्लाम और वलाथौल की शुभकामनाएं प्राप्त थीं। इस संघ की छत्रछाया में बहुत से लेखक इकट्ठे हो गए। कृष्णचंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, इस्मत चुग़ताई, अहमद अली, अब्बास हुसैनी, मुल्क राज आनंद, मंटो, अब्बास, शौकत सिद्दीक़ी, गुलाम अब्बास, अहमद नदीम क़ासमी इत्यादि। ये लोग सही अर्थों में प्रेमचंद के उत्तराधिकारी थे। इनके कारण उर्दू कहानी जीवन की प्रतिनिधि और मानव-मुक्ति की समर्थक बनी। इसमें भाषा तथा तकनीक की खूबसूरती आई। इसमें संपूर्णता आई-चूंकि ये कहानियां देश की स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ चल रही थीं, इसलिए इनमें विषयों का फैलाव और चेतना का रुझान बड़ा प्रबल था-उच्च वर्ग की झूठी और जर्जर जिंदगी, जनसाधारण के कष्ट और उनके परिश्रम का शोषण और उसके वाबजूद उनका निरंतर संघर्ष और आशा, भारत की प्राकृतिक सुंदरता और उस पर लगे कोढ़ के दागों की तरह गरीबी, लोगों की यौन संबंधी उलझनें, वेश्याएं और उनकी समस्याएं, स्त्री और उसकी मुश्किलें, पीढ़ियों का आपसी टकराव। इस समय में अनेकों उत्कृष्ट कहानियां लिखी गईं जैसे कि मंटो की ‘‘काली शलवार’’, इस्मत चुग़ताई की ‘‘गेंदा’’, बेदी की ‘‘ग्रहण’’, कृष्णचंदर की ‘‘बालकोनी’’ और ‘‘कालू भंगी’’, अहमद अली की ‘‘हमारी गली’’, अली अब्बास हुसैनी की ‘‘आम का फल’’, प्रेमचंद की ‘‘कफन’’, गुलाम अब्बास की ‘‘आनंदी’’ ...तथा ऐसी ही अनगिनत कहानियां जो कला और जीवन दोनों को अपनी पकड़ में लिए दृष्टिगोचर होती हैं।

1945 ई. के लगभग एक नयी पीढी उर्दू कहानी में प्रवेश करती दिखाई पड़ती है और वह उन पुराने (जो प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ ही आ गए थे) साहित्यकारों के साथ-साथ ही चलने लगती है। उनमें मुमताज़ शीरीं, कर्तार सिंह दुग्गल, मोहिन्दर नाथ, इंतज़ार हुसैन, सुहेल अज़ीमाबादी, इक़बाल मतीन, रज़िया सज्जाद ज़हीर फ़िक्र तौंसली, हसन अस्करी, कुर्रतुल-एन-हैदर, हाजिरा मसरूर, खदीजा मस्तूर, सुरेंद्र प्रकाश, देवेन्द्र इस्सर-इन लोगों की धारणाएं कमोबेश प्रगतिशील लेखकों जैसी ही थीं, परंतु इनमें से कुछेक के यहां पात्रों का व्यक्तिगत विश्लेषण और परिस्थितियों के विश्लेषण पर अप्रत्यक्ष रूप से अधिक बल दिया जाने लगा था।
1947 ई. में स्वतंत्रता आई जो अपने साथ देश का विभाजन भी लाई...उर्दू के सभी कहानीकार इस दुखांत पर एक साथ चीख उठे। कई वर्षों तक इसका प्रभाव रहा और अत्यंत करुणामयी और प्रभावशाली कहानियां लिखी गईं। कहानीकारों तथा साहित्य की सभी विधाओं के रचनाकारों की पंक्ति में भी दरार पड़ गई, क्योंकि बहुत से लोग जो पाकिस्तान में थे, वे अब पहले जैसा संपर्क न रख सके और कुछ इधर से उधर भी चले गए।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद कुछ नाम और आए जैसे कि जिलानी बानो, आमना अबुलहसन, रत्न सिंह, कलाम हैदरी, काज़ी अब्दुस्सत्तार, बलवंत सिंह, अनवर अजीम, आतक़शाह, अली मोहम्मद लौन, नूर शाह, अहमद, यूसुफ़, बलराज मैनरा, जुहरा जमाल, शमीम नक़हत, अफ़्त मोहानी, रज़िया फ़सीह अहमद, ज़ीनत साजिदा, वाजिदा तबस्सुम और बहुत से ऐसे नये नाम जो पुरानी और नयी पीढ़ी के साथ-साथ बराबर लिख रहे हैं।
हास्य कहानी-लेखकों में पितरस बुखारी से लेकर फ़िक्र तौंसवी, मुज़त्बा हुसैन, अहमद जमाल पाशा आदि के नाम लिए जा सकते हैं। मेरे विचार में इस समय हास्य-व्यंग्य 1936 लेखकों में फ़िक्र तौंसवी का दर्जा सब से ऊंचा है। उनका अनुभव और विषय-वस्तु बहुत विचित्र, दृष्टि दूर-रस और शैली तथा भाषा और व्यंग्य बेहद ताजा और तीक्ष्ण है। उनका दृष्टिकोण प्रगतिशील है और उद्देश्य समाज की दुखती रगों पर चोट करना है जिसे वह अत्यंत प्रवीणता के साथ अदा करते हैं।
उर्दू कहानी में सदा दो प्रकार के साहित्यकार रहे-एक वे जो साहित्य को जनतिक सामाजिक और सामूहिक समझते हैं, दूसरे वे जो काल्पनिक, रोमांटिक, निजी और व्यक्तिगत रंग को पसंद करते हैं। कुछ साहित्यकारों का हाल ही में यह दृष्टिकोण भी बन गया है कि लेखक के किसी सामाजिक संस्था या संगठन से संबंधित होने से उसकी कला को क्षति पहुंचती है। हिन्दी में यह नारा उर्दू से अधिक है और उर्दू में उसके आने का एक कारण यह भी हो सकता है कि हिन्दी की शिक्षा अब सभी के लिए आम है। अभी इस प्रकार के व्यक्तिगत और असफलताओं को प्रतिबिंबित करने वाले साहित्य की आयु बहुत थोड़ी है। इसलिए इसके भविष्य के संबंध में तो कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन इतना अवश्य है कि यह प्रवृत्ति एक स्थायी स्थिति बन सकती है, लोगों में निराशा तथा भाग्यवाद की भावना उत्पन्न कर सकती है तथा बाहरी तत्वों से अलग करके, आदमी को अपने आप ही में घुटे रहने और विष घोलते रहने पर तत्पर कर सकती है; अहसास के बाद अमल के तर्कसंगत रास्ते से हटा कर, उनको जीवन की शक्ति और हरकत की बरकत से अलग करके मृत्यु को प्रत्येक समस्या का समाधान बना कर प्रस्तुत कर सकती है। प्रत्येक सचेत व्यक्ति यह समझ सकता है कि यह प्रवृत्तियां कितनी अर्थहीन और साथ ही कितनी खतरनाक हैं। पराजय, घुटन, रोष, पलायन, अपने आप में ही उलझे रहना, किसी भी साहित्य को अधिक आगे नहीं ले जा सकता। हमारी त्रटिपूर्ण अर्थव्यवस्था, शिक्षा, बेरोजगारी,  सामाजिक कुरीतियां, नैतिक भ्रष्टाचार, भाषाओं की समस्याओं का समाधान न होना, विदेशी प्रभाव-ये सब उस प्रवृत्ति के जिम्मेदार हैं। मजे की बात यह है कि जिन विदेशों से जोड़ कर इन प्रवृत्तियों का उल्लेख किया जाता है वहां ये प्रवृत्तियों कब की समाप्त हो चुकी हैं।

हमारे युवक-युवतियां यदि अपने महान विरसे और जीवन के अत्यंत निकट अपने सनातन साहित्य की आत्मा को समझने और उससे कुछ सीखने का प्रयास करें तो उन्हें मालूम होगा कि उनके अतीत का साहित्य सदा ‘साहित्य जीवन के लिए और साहित्य मनुष्य के लिए’ का समर्थक रहा है और कोई भी साहित्य अपने विरसे से बिलकुल अलग नहीं हो सकता।
उर्दू कहानी में तकनीक के नये-नये प्रयोग हमेशा होते रहे हैं, परंतु जिस प्रकार एक स्वस्थ बीज से पौधा और फिर एक बड़ा-घना वृक्ष बन जाता है और प्रत्येक वृक्ष की शाखाएं अपने ही अंदाज से फैलती और बढ़ती हैं, उसी प्रकार एक सजीव, स्वस्थ और सशक्त विचार अपने आप को एक स्वस्थ और कलासंपन्न साहित्यिक रूप में ढालता है ओर उसका पालन-पोषण स्वाभाविक ही होता है। तकनीक को अधिक जटिल बनाना ऐसा ही है जैसे अपनी टाई को आधुनिक से आधुनिक तरीके से बांधने की चिंता में अपनी गर्दन को जकड़ा लेना। हरेक भाषा परिवर्तित होती रहती है क्योंकि भाषा एक सजीव वस्तु होती है। परंतु मेरा विचार यह है कि अभी उर्दू कहानी में आम तौर पर भाषा और वर्णन पर उतनी मेहनत नहीं हो रही है जितनी कि होनी चाहिए। अंततोगत्वा कोई विचार कला का रूप तो उसी समय धारण करता है जब वह कोई जरिया, फार्म या माध्यम पा लेता है, चाहे वह पत्थर हो या रेखा, रंग हो या शब्द....
उर्दू कहानी के बारे में एक रोचक बात यह भी है कि गत दस-पंद्रह वर्षों में यह देवनागरी लिपि में प्रकाशित होकर अपार लोकप्रियता प्राप्त कर रही है।

मुशायरों की तरह ‘कहानी संध्या’ भी आजकल जगह-जगह होती है और प्रसन्नता की बात यह है कि उन अवसरों पर, जो कहानी-लेखक के लिए कड़ी परीक्षा सिद्ध होती हैं, हमेशा मैदान ‘साहित्य जीवन के लिए’ वालों के हाथ रहता है, क्योंकि जनसाधारण बहुत सीधे-सादे और साफ कहने वाले होते हैं और उनके पास परिश्रमी होने के कारण इतना समय नहीं होता जो वे जटिलताओं को टटोलते और खोलते रहें।
अंत में मुझे यह कहना है कि उर्दू कहानी पर आलोचना लिखने वाले, उर्दू कहानी से बहुत पीछे हैं। मेरे विचार में सिर्फ इहतशाम हुसैन साहिब एक ऐसे आलोचक है जिन्होंने कहानियों पर आलोचना लिखी है-जरूरत इस बात की है कि नये और नौजवान साहित्यकारों में से ही नये आलोचक भी निकलें।
समूचे तौर पर, आज की उर्दू कहानी जीवन से ओत-प्रोत और विविध रचनाओं से बहुत समृद्ध है और निस्संदेह उर्दू कहानी उस शिखर पर पहुंच चुकी है कि एक ओर वह अपने आम पाठकों में लोकप्रिय है तो दूसरी ओर संसार की किसी भी भाषा की कहानी के बराबर रखी जा सकती है।
-रज़िया सज्जाद ज़हीर



एक से आगे
अहमद यूसुफ़


उनमें से एक दुकान के तख़्ते पर बैठा है। वह अपनी उन आंखों से जिनके ताक के रोशन चिराग न जाने कब के चुराए जा चुके हैं, नाले के जमा हुए कीचड़ में उन बुलबुलों को देख रहा है जो पानी की एक रफ्तार सी लहर से पैदा होते हैं, और जो बनते ही बिगड़ जाते हैं। उसकी चीकट दाढ़ी रस्सी जैसी दिखाई देती है। सिर पर उषा-निशा की तरह फैली हुई सूखी घास है। उसका लंबा कुरता कभी धुला होगा और ऊँची तहमद साफ भी रही होगी। पांवों में उसने चप्पल जैसी कोई चीज डाल रखी है। दियासलाई जलाते समय एक कमजोर सी सींख टूट कर उसके सीने के बालों में फँस गई है। बीड़ी पीते हुए घुआं किस ओर जा रहा है ? राख किधर जा रही है ? इस मानसिक स्थिति में तो उसे अपने बाएं हाथ तक की सुध नहीं, जिसमें एक अल्मुनियम का प्याला है और जिसने कई स्थानों से दब कर छोटी-छोटी सी काली आंखें बना ली हैं कि वह तो नाले के बनते-बिगड़ते बुलबुलों को देख रहा है, बस...बराबर, जो तख्त से लग कर खड़ा है, एक भरे हुए अनमोल जिस्म का मालिक है। कई दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी ने, उसके चेहरे पर एक गहरी सी गंदी तह डाल दी है। सिर के बाल धूल और मिट्टी की ज़ंजीरों में जकड़े खड़े हैं। उसकी कमीज का गला बहुत दूर तक फटा दिखाई देता है और पसीने तथा मैल ने उसे कई स्थानों से जख्मी कर दिया है। नीचे एक नेकर है और पांव में एक खाकी कैनवस का जूता, जो कई जगह से आहें ऊंची कर रहा है। वह टिकटिकी बांधे उस पतंग को देख रहा है, जो छोटी सी डोर के साथ, बिजली के तार में फंसी है और जो कभी-कभी हवा की चपेट में आकर, इस तरह उड़ने लगती है जैसे वह कैद के अंधकार से आजाद हो चुकी हो।

दूसरा बिजली के खंबे से चिपका खड़ा है। उसके हाथों में अब सिर्फ अंगुलियों के निशान रह गए हैं। सिर पर भूरे-भूरे बालों की छिदी लकीरें खिंच गई हैं। चेहरे पर जले दिन की खाक बिखरी पड़ी है। नाक घुल कर दो सुराखों को छोड़ गई है और कान आधे गायब हो चुके हैं। जिस्म पर महीनों और वर्षों के आने-जाने से चूर एक बनियान और एक लंगोटी है। पांव में जगह-जगह अंगुलियों के खंडहर फैले हुए हैं। वह छोटी-छोटी आंखों से देख रहा है। सामने, न दूर की मंजिल, न पास कोई खतरा...यूं देख रहा है कि इन आंखों से देखा ही करते हैं। और उसके निकट, एक और लाठी से टेक लगाये खड़ा है। उसके सीने ने बहुत आगे की ओर निकल कर कमान का रूप धारण कर लिया है। इस प्रकार टांगें भी पीछे की ओर धनुष सी बना लेती हैं। जब वह चलना चाहता है तो सीने की कमान पीछे की ओर धकेल देती है और टांगों की कमान आगे की ओर। इस अफरा-तफरी में वह घिसटता हुआ चलता है और चलते हुए हांफने लग जाता है। इस समय वह हांफता हुआ जा रहा है, बुदबुदाता हुआ जा रहा है। उसके सिर पर सूखे बालों का जंगल सा बसा है। आंखें उबली पड़ रही हैं। उसकी कमीज की दोनों आस्तीनें काट दी गई हैं और कालर निकाल कर बड़े-बड़े लंगर दे दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त उसके शरीर पर एक नेकर भी है। पांव में रबड़ का जूता है, जिस पर शुष्क मिट्टी की परतें जमी हैं। वह जितनी तेजी से हांफ रहा है, उतनी ही तेजी से बुदबुदा भी रहा है। उसके पास ही दो और, जमीन पर उकडूं बैठे हैं। उनके बीच डालडा का एक छोटा सा टीन रखा है, जिसे हाथ में लटकाने के लिए ऊपर की ओर आमने-सामने दो छेद करके एक बड़ी तार में बांध दिया गया है। वे उजाड़-उजाड़ आंखों से एक-दूसरे को देख रहे हैं।

तभी उनमें से एक डिब्बे की तरफ देखता है, जिसमें दुनिया भर की चीजें भरी हैं। इन चीजों का आपस में कोई संबंध नहीं है, लेकिन इनके बीच संबंध पैदा करना तो उसका काम है। वह ढूंढ़-ढूंढ़ कर डिब्बे में से एक बीड़ी निकालता है, जिसका निचला सिरा थोड़ा सा टूट गया है। वह उसे कई बार देखता है, और अंत में संतुष्ट होकर आग के लिए पास खड़े हुए आदमी से दबी सी जुबान में कुछ कहता है। बीड़ी सुलग जाती है और वह उसका एक लंबा कश लेता है। उसके सिर पर टोपी इस तरह रखी है कि सिर के बाल कहीं से भी दिखाई नहीं देते। उसके चेहरे पर घास-फूस सा उगा हुआ है, और आंखों में गंदे पानी के सिवा कुछ भी नहीं है। उसने एक चारखाने की कमीज पहन रखी है। लुंगी भी चारखाने की है। दो लंबे कश खींचने के बाद वह खांसने लगता है। तभी दूसरा उसकी अंगुलियों के बीच से बीड़ी निकाल लेता है और फिर कुछ बोलता है। शायद सहानुभूति के दो शब्द, ‘यूं पी जाती है, बीड़ी !’ पहला आदमी खांसते-खांसते रुकता है और मुंह से बहुत सारा बलगम निकाल कर वहीं पर थूक देता है, लेकिन बीड़ी पीने वाला अपनी जगह बिलकुल खैरियत से है, और उस बलगम की ओर कोई ध्यान नहीं देता है। उसका सिर छोटा और चिकना है, जिस पर सिर्फ एक चुटिया दिखाई देती है। उसके कान मुड़े-तुड़े हैं और चेहरा बिलकुल साफ। आंखें उलटे-पांव अंदर की ओर जा रही हैं, और हर क्षण सोचना पड़ता है कि इस क्रिया में वे वहीं की न हो रहें। उसके जिस्म पर सिर्फ एक बनियान और नेकर है, पांव नंगे हैं।

पहला क्रोधित नजरों से उसकी ओर देखता है। तब उसकी बेजुबानी कहती है, ‘साले मौके से फायदा उठाते हो।’
वह फिर अपने डिब्बे की तलाश शुरू कर देता है, जिसमें कच्ची-पक्की रसभरियां हैं। खट्टी-मीठी चूसने वाली गोलियां हैं। संतरे की दो-एक फाड़ियां हैं। एक बासी रोटी है और इन वस्तुओं की तह में कुछ पैसे हैं। बीड़ी कहीं नहीं मिलती। इस तरह वह होठों-होठों में बड़बड़ाता है, जिसे सुना नहीं जा सकता।

‘जब बीड़ी पीने बैठता हूं, यही हादसा पेश आता है।’ वह दूसरे आदमी की ओर इस तरह देख रहा है, जैसे उसका वजूद किसी हादसे से कम न हो। और उन दोनों से बेखबर, एक किनारे पर बैठा है। उसके सूखे पिंजर पर इंसानी खाल पड़ी है, जो उसके जीवन का प्रमाण है। उसके चेहरे पर छोटे पके बाल दिखाई दे रहे हैं। आंखों ने असीम गहराई में शरण ली है, और यूं वह उन्हें काफी समेट कर कुछ देखता निहारता है, उकडूं बैठने पर उसके घुटने उसके लटकते कानों के रोओं तक पहुंच गए हैं। घुटने चिकने हैं। यूं लगता है जैसे टांगों को गति में रखने के लिए, वह बराबर उनकी मालिश करता है। उसके शरीर पर ढीला-ढाला सा कुरता और एक लंगोटी है। कुरते के सभी बटन गायब हैं। पांवों में टायर की चप्पल है। आंखों की तरह स्वयं भी अपने आप में सिमटता जा रहा है। उसके पीछे आठ-दस साल का एक काला-कलूटा लड़का खड़ा है। उसका सिर घुटा है। जिस्म पर सिर्फ एक खाकी हाफ-पेंट है, जिसकी हिप पर एक काले कपड़े का पेबंद लगा है और वह बिलकुल बेखबर सा खड़ा अपनी ही आयु के उन लड़कों को देख रहा है, जो बगलों में किताबें और टिफन का डब्बा दबाए स्कूल जा रहे हैं-हंसते-बोलते, चीखते-चिल्लाते, सीटियां बजाते...उसकी आंखें बहुत दूर तक उनका पीछा करती हैं और तब सहसा उसे कुछ स्मरण हो आता है, और वह होठों ही होठों में अपने पाठ को दोहराता हुआ, वीरानियों में खो जाता है।
वहीं पर कमो-बेश उसी उम्र की एक लड़की भी खड़ी है जो धीरे-धीरे अपना सिर खुजला रही है और उलझे हुए बालों को और भी उलझाती जा रही है। उसने ऊंची सी एक चोली पहन रखी है, जिससे उनकी नाभि साफ नजर आ रही है। शरीर पर एक छोटी सी साड़ी है जो एक लंबे समय से चिपके रहने के कारण बोझ सी बन गई है। वह तेजी से सिर खुजलाने लगती है और कुछ इस प्रकार हैरान-परेशान अपने इर्द-गिर्द नजर दौड़ाती है, जैसे कह रही हो-‘मैं यहां कब तक खड़ी रहूंगी ?’

उससे सटी हुई एक स्त्री भी हाथ में प्याला लिए खड़ी है। उसकी आयु का अनुमान लगाना अत्यंत कठिन है कि कुछ कहानियां ऐसी भी होती हैं जो आरंभिक पृष्ठों में ही संपूर्ण दिखाई देती हैं। उसके सिर पर आंचल है और चेहरे पर तेज धूप की क्रिया-प्रतिक्रिया।
फर्श की सतह उखड़ी-उखड़ी दिखाई देती है। उसने एक ऊंची सी आधी बांहों की ढीली-ढाली कमीज पहन रखी है जिससे उम्र की निशानियां बाहर नहीं आ पाती हैं। शरीर पर एक साड़ी है जो धुलते-धुलते अपनी हया खो चुकी है और उसके नीचे...।
और इस चमकते दिन में उसकी आंखें जैसे कह रही हैं, ‘मैं सब कुछ देख चुकी, सब कुछ कह चुकी।’
और उनसे जरा परे, उन्हीं जैसे लोगों की कुछ और टोलियां खड़ी हैं।

कैंडल कालोनी
इक़बाल मतीन


(पात्र और स्थान सब बिलकुल फर्जी हैं। यदि आप चाहें तो सामान की सूची और लखनऊ वालों को असली समझ सकते हैं।)
उस प्यासी और बंजर धरती के समान, जिस पर मेघ उमड़-उमड़ कर छाए थे लेकिन तेज हवाओं ने उन्हें उड़ा कर कहीं और बरसने के लिए छोड़ दिया हो, कोई उन मुहब्बतों के लिए जो दूसरों से उसको नहीं मिलती हैं, तरस तो सकता है। लेकिन अब्बा की एक और असफलता थी। वह आदमी जो अपनी ही मुहब्बत निस्संकोच दूसरों पर लुटाना चाहे लेकिन लुटा न सके, ऐसी असफलता जो सन्नाटा बन कर आदमी के मन में बस जाती हैं।
मायूसी समझिए जैसे बादल उमड़-उमड़ कर उठते हों, झूम-झूम कर छाते हों लेकिन बरस ही न पाते हों, और उनके विशाल सीने में छुपा हुआ ठंडा-मीठा पानी कंकर बन कर उनके अपने सीने का बोझ बन जाता हो।

अब्बा के सीने में अपार मुहब्बत का जज्बा, इस प्रकार घुट-घुट कर एक बोझ बन गया था। अब्बा सारी कैंडल कालोनी का अब्बा था। मैं भी नये किरायेदार के नाते उसकी संतान में एक वृद्धि की हैसियत रखता था। पहले-पहल जब मुझे अब्बा से वास्ता पड़ा था, तो उसने मुझे कांच के सामान की दुकान से उठाए हुए मिट्टी के माधो की तरह बरता था। दुकान के मालिक ने अगर शीशे के सामान में मुझे भी सजा दिया था तो उसमें मेरा क्या दोष ? लेकिन खरीददार ने मुझे ही दोषी ठहराया कि मैं इस दुकान का हिस्सा नहीं था। मेरे जुर्म की, अब्बा ने मुझे खूब सजा दी।

मेरा जुर्म यही था कि मैं शहर के बीच में, जहां रहने की इच्छा में बड़े-बड़े खाते पीते लोग अपनी मोटरों के टायर घिसते-फिरते थे लेकिन उन्हें रहने को इस कालोनी में मकान नहीं मिलता था, वहां मैं मोटरों के टायर नहीं, अपने जूते घिसता फिर रहा था। अब्बा ने मुझे सिर से पैरों तक देखा था। फिर पैरों से सिर तक। वह बिना किसी की साझेदारी के सारी कालोनी का मालिक था। उसके कोई संतान नहीं थी। छोटे-बड़े खूबसूरत से क्वार्टर और उनमें सजे हुए रंग-बिरंगे सामान के बीच शीशे के बने हुए नाजुक-नाजुक लोग ! ये थे-अब्बा के किरायेदार, जो मोटरों में उड़ते थे और फर्श पर जूते पहन कर चलते थे कालोनी की इसी कांच की दुनिया में, मैं भी अपने मिट्टी के घरौंदे का सारा सामान लेकर चला आया और यह सब कुछ उसी समय हो सका जब अब्बा ने मुझे उलट-फेर कर अच्छी तरह परख लिया कि में कहीं से टूटा-फूटा तो नहीं हूं, मुझ में कोई कसर नहीं है। घर के लिए मेरी जरूरत निश्चय ही ऐसी है कि इस कालोनी में वह हिस्सा जो भांय-भांय करता हुआ पड़ा है और सभी ने छोड़ दिया है, मुझे दिया जा सकता है। मुझे अब्बा ने इसके बावजूद तीन चक्कर कटवाए। और जब मैंने निराश होकर, इस विषय में मिलना छोड़ दिया तो वह स्वयं मुझे शहर के पुराने बाजार में अपनी लंबी-चौड़ी कीमती सी कार में बैठा हुआ मिला। ख़ुद उसके बुलाने पर जब मैं उसके निकट पहुंचा तो उसने कहा-‘‘क्यों साहिब, आपको मकान नहीं चाहिए ?’’

 

 

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